Saturday 4 January 2014

फर्क सिर्फ इतनाही था

यह रचना घूम फिरकर बार बार इंटरनेटपर आ जाती है। शायद मेरी तरह बहुतसे अन्य लोगभी इसे पसंद करते हैं। इस कविताके कवि या शायर कौन है यह मै नही जानता। जोभी हो उसे सादर प्रणाम। जीवन और मौत इन दो भिन्न स्थितीयोंमें कितनी समानता है और फर्क, इसका बहुतही मार्मिक  विश्लेषण इस कृतीमें है।

फर्क सिर्फ इतनासा था।

तेरी डोली उठी, मेरी मय्यत उठी
फूल तुझपरभी बरसे, फूल मुझपरभी बरसे
फर्क सिर्फ इतनासा था।
तू सज गयी, मुझे सजाया गया ।

तू भी घरको चली, मैभी घरको चला
फर्क सिर्फ इतनासा था।
तू उठके गयी, मुझे उठाया गया ।

मेहफिल वहाँ भी थी. लोग यहाँ भी थे
फर्क सिर्फ इतनासा था।
उनका हँसना वहाँ, इनका रोना यहाँ ।

काझी उधर भी था, मौलवी इधर भी था,
दो बोल तेरे पढे, दो बोल मेरे पढे,
तेरा निकाह पढा, मेरा जनाजा पढा
फर्क सिर्फ इतनासा था।

तुझे अपनाया गया, मुझे दफनाया गया
फर्क सिर्फ इतनाही था।

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