Sunday 12 January 2014

पिटारेकी कहानी

इस ब्लॉगके पाठकोंकी संख्या आज एक सौ के ऊपर पहूँच गयी है। इनमे पचास पाठक विदेशमे रहते है। इससे ऐसा लगता है कि मेरा यह प्रयास सफल होनेकी दिशामे चल रहा है।  अब वक्त आ गया है कि मै इसके बारेमे दो टूक बोल दूँ। "खुदको 'आनंदजी' कहनेवाला ये कैसा आदमी है?" "इसने अपने ब्लॉगका नाम पिटारा क्यों रखा?" ये सवाल शायद आपके मनमें आये होंगे। कोई ये प्रश्न मुझे पूछे इससे पहलेही इनका उत्तर देना ठीक होगा।

तो शुरूसे शुरुवात करते है। छत्रपती शिवाजी महाराजके पिताश्री शहाजी महाराज, पुत्र संभाजी महाराज, मित्र तानाजी मालुसरे, येसाजी कंक आदि अनेक इतिहासकालीन प्रसिद्ध लोगोके नामका अंतिम अक्षर 'जी' हुआ करता था। उनके बाद भी महादजी, राणोजी, दत्ताजी आदि वीरोंके नाम इतिहासके पन्नोंमे मिलते हैं। ये नाम धारण करनेवाले लाखों लोग आज भी महाराष्ट्रमें है। इसका मतलब नामके अंतमे जी लगाना यहाँके लोगोंके लिये कोई अनूठी बात नही है। पर मैने या मेरे परिवारमें किसीने ये काम अभीतक नही किया था।

मेरे पुख्तैनी गाँवमे जहाँ मैने अपना बचपन बिताया वहाँ कोई भी हिंदीभाषी नही रहता था। शालेय शिक्षामे हिंदी भाषाका अध्ययन तो किया था, मगर किसीसे बोलनेकी ना जरूरत होती थी, ना ही कोई मौका मिलता था। नौकरी करनेके लिये जब मै मुंबई आया तब हमारे कार्यालयमे कश्मीरसे तमिलनाडू और गुजरातसे असमतक लगभग सभी भारतीय राज्योंसे आये हुए लोग थे। उनमे हिंदीभाषी लोग भी बडी संख्यामे थे। उनसे बातचित करते करते मैने हिंदी बोलना सीख लिया। हिंदी सिनेमा और टीव्ही सीरियल्स देखते हुवे उसमे और सफाई आती गयी।

शर्मा, वर्मा, गुप्ता, अग्रवाल वगैरे मेरे मित्र हमेशा एक दूसरेको शर्माजी, वर्माजी, गुप्ताजी इस तरह संबोधित करते थे। दो तीन शर्मा या गुप्ता इकठ्टे बैठे हो तो विनोदजी, सुदेशजी वगैरा कहते थे। मेरा संबोधन प्रायः घारेजी होता था, मगर कोई करीबी दोस्त कभीकभार आनंदजी भी बोल लेता था। सबसे पहले उन लोगोंने मेरा यह नामकरण किया था। उन दिनों कल्याणजी आनंदजी एक बेहद पॉप्युलर संगीत निदेशक जोडी हुवा करती थी। उनके असली नाम क्या थे ये मै नही जानता, मगर अगर वो सिर्फ कल्याण और आनंद होते तो दोनोंको मिलाकर कल्याणआनंद हो जाता। उसका उच्चार कल्याणानंद होता और वे स्वामी विवेकानंद या चिन्मयानंद जैसे कोई साधू सन्यासी प्रतीत होते। संगीत देते तो भी सभी लोग हमेशा उनसे 'गोविंद बोलो भाई गोपाल बोलो' जैसे भजनकी उम्मीद करते। मगर उनको तो प्रेमगीत और कॅबरेतकका म्यूजिक देना था। इसलिये कल्याण और आनंदके बीचमे एक जी लगाकर उनको अलग किया होगा और उससे तुक मिलाने हेतु आखिरमे एक और जी जोड दिया होगा। ऐसा मेरा सिर्फ तर्क है। सचमे क्या हुवा होगा इसका मुझे कोई पता नही।

मगर संगीतकार आनंदजीभाई मेरे इस नामकरणके प्रेरणास्रोत नही थे। मैने जब मराठी भाषामें अपना पहला ब्लॉग शुरू किया तब मुझे उसकी प्रक्रियाके बारे मे कुछ भी जानकारी नही थी। उसे एक नाम देना जरूरी है यह भी मै जानता नही था। मैने ब्लॉगस्पॉटका पन्ना खोला। उसने पहलेही ब्लॉगका नाम पूछा। मैने अपनाही नाम लिखना शुरू किया। ANANDGHA  यहाँतक आते आते मै उसके बारेमें सोचता रहा। अचानक मुझे साक्षात्कार हुवा की शायद यहाँ कुछ अलग लिखना होगा। फिर उसी क्षणमे मनमे एक विचार आया कि N लिखनेसे एक दूसरा शब्द बनता है। कुछ हदतक उस शब्दका इस ब्लॉगके साथ ताल्लुक भी हो सकता है। इस तरह उस ब्लॉगका नाम 'आनंदघन' हो गया। वह ब्लॉग इस तरह चला कि धीरे धीरे मेरी एक और नयी पहचान बन गया। उसे अबतक १६०००० से अधिक बार पढा गया है।

फेसबुकपर दाखिल होनेके बाद मैने अपने उस ब्लॉगके लिंक देना शुरू किया। मेरे मराठीभाषी और मराठी पढनेवाले अमराठी मित्र उसपर कॉमेंट्स देने लगे। वो पढकर कुछ हिंदीभाषिक मित्रोंने मुझे सुझाव दिया कि मै अपनी रचनाएँ हिंदीमें भी प्रस्तुत करूँ। उनका सम्मान करनेके हेतु मैने यह उपक्रम शुरू तो कर लिया है। अब कितना चलेगा इसका पता भविष्यमे लग जायेगा। इस हिंदी अनुदिनीके लिये एक नाम ढूँढना था। अन्य लोगोंकी तरह मै भी ब्लॉग्जमे प्रायः अपनी बात कहता हूँ । इसको मद्देनजर रखते हुवे आनंदके लेख, आनंदके बोल, आनंदका खजाना, आनंदका पिटारा आदि पर्याय उपस्थित हुवे। उसमे आनंदके लेख ये नाम कुछ ज्यादा ही यथार्थ था तथा बहुतही सामान्य लगता था। आनंदके बोल लिखूँ तो उसमे ये कठिनाई है कि मुझे पहचाननेवाले लोग जानते है कि आम तौरपर मै बहुत बातें नही करता, आनंदका खजाना लिखूँ तो उसमे रखनेके लिये अनमोल रतन कहाँसे लाऊँ? पढनेवाले बडी उम्मीदसे उसे खोलें और उनको वहाँ कंकड, पत्थर और काँचके टुकडेही मिले तो उनकी बडी निराशा होगी। आनंदका पिटारा ये नाम ठीक लगा। इसमें सिर्फ एक प्रॉब्लेम है। साहित्य और जीवन नवरससे बनता है। इस वजहसे आनंदके पिटारेमें भी अन्य स्वादोंका आना अनिवार्य है। इसके सिवा एक और दिक्कत ये है कि पाठकको इसमें आनंद भी मिले इसकी क्या गॅरंटी है?

मेरी यह दुविधा अचानक समाप्त हुई। कुछ दिन पहले मै रेल्वेमे सफर कर रहा था। हालाँकि मेरी टिकटपर कोच नंबर और सीट नंबर टाइप किया हुवा था, फिर भी प्लॅटफॉर्मपर खडी रेलगाडीकी डिब्बेमे चढनेसे पहले मैने वहाँपर लगी सूचिमें अपना नाम देखना चाहा। ऊपरसे नीचे तक देखता गया मगर घारे नामका कहींभी अतापता नही था। मैने जेबसे अपनी टिकट निकालकर कोच नंबर और सीट नंबर देखा और फिर चार्ट देखा। मेरी सीट किसी  'आनंदजी'को दी गयी थी। उसकी उम्र भी मेरे जितनीही थी और गंतव्य स्थान भी वही था। मेरे इस डुप्लिकेटसे मिलनेके वास्ते मै गाडीमें चढ गया। वैसेभी उस समय उस गाडीमे न चढता तो और कहाँ जाता? वहाँपर कोई शख्स नही बैठा था तो मैने सीटपर अपना कब्जा कर दिया। स्टेशमसे गाडी छूट गयी। थोडी देर बाद टीसी आया। मैने उसे अपना टिकट और आयडी दिखाया। उसने भी बिना कोई सवाल पूछे मान लिया कि मैही आनंदजी हूँ। रेलवेके कम्प्यूटर भी गजबका काम करते हैं। मेरा पहला नाम आनंद और सरनेमका पहला अंग्रेजी अक्षर जी को साथ लेकर असने देवनागरी लिपीमें आनंद जी टाइप कर दिया था। इस तरह मिला हुवा मेरा नया नाम मुझे उपयुक्त लगा और मैने वहीं तय किया कि अपने हिंदी ब्लॉगका नाम आनंदजीका पिटारा रखूँ। फिर मै उसमे जो चाहे रख सकता हूँ और इस पिटारेमे क्या बंद है इसकी कुछ उत्सुकता बनी रहेगी।

आप सबसे विनती है कि इस पिटारेको खोलते रहे और अपना अभिप्राय मुझे जरूर दे।

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